Emergency Review : इमरजेंसी इंदिरा गांधी के बचपन से लेकर उनकी हत्या ताकि घटनाओं को दिखाती है हालांकि फिल्म बायोपिक होने का दावा भी नहीं करती अपने मूल स्वभाव में इमरजेंसी एक पॉलिटिकल ड्रामा है और अगर एक कहानी इस ड्रामा को ठहर कर अच्छे से एक्सप्लोर करें तो ऑडियंस को भी एक अच्छा एक्सपीरियंस मिलता है क्या इमरजेंसी यह एक्सपीरियंस डिलीवर कर पाई या नहीं?
असल जिंदगी में खुद एक सांसद कंगना रनौत दूसरी बार बड़े पर्दे पर एक रियल लाइफ पॉलिटिशियन के रोल मैं हाजिर है पिछली बार उन्होंने थलाईवी में तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता का किरदार निभाया था इस बार इमरजेंसी में वो भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रोल में है।
टाइटल के हिसाब से फिल्म का प्लॉट 1975 में लगे आपातकाल पर बेस्ट होना चाहिए था लेकिन इमरजेंसी इंदिरा गांधी के बचपन से लेकर उनकी हत्या तक की घटनाओं को दिखाती है हालांकि फिल्म बायोपिक होने का दवा भी नहीं करती।
अपने मूल स्वभाव में इमरजेंसी एक पॉलिटिकल ड्रामा है और अगर एक कहानी इस ड्रामा को ठहरकर अच्छे से एक्सप्लोर करें तो ऑडियंस को भी एक अच्छा एक्सपीरियंस मिलता है क्या इमरजेंसी यह एक्सपीरियंस डिलीवर कर पाती है या नहीं चलिए आपको बताते हैं।
क्या है इमरजेंसी का मुद्दा।
फिल्म इंदिरा गांधी के बचपन से शुरू होती है जहां वो अपनी टीवी पीड़ित मां को लोगों से दूर रखने के लिए अपनी बुआ विजय लक्ष्मी से नाराज इंदिरा गांधी को अपने दादा से सत्ता और पावर जैसे शब्दों के मतलब पता चलते हैं लेकिन उस बच्ची की मनुस्थिति को एक्सप्लोर करने में फिल्म समय नहीं खर्च करना चाहती और आगे बढ़ जाती है।
यहां से कहानी इंदिरा गांधी के राजनीतिक उभार पर फोकस करने लगती है इंदिरा गांधी चीन के हमले से आतंकित असम को भारत में जोड़े रखने के लिए एफर्ट करती नजर आती है ये एफर्ट है जीप के बोनट पर चढ़कर अपना गांव छोड़कर चीन की तरफ निकले लोगों को ये कहते हुए रोकना की सब ठीक हो जाएगा राजनीतिक रूप से इंदिरा गांधी ने क्या ऐसा किया कि असम की स्थिति बदल गई? इस पर फिल्म टाइम खर्च नहीं करती हालांकि यहां कहानी कम से कम दो बार इस बात पर फोकस करती है कि इंदिरा के पिता भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने असम को चीन हमले के बाद अकेला छोड़ दिया था जब इंदिरा गांधी ने असम बचा लिया।
अब कहानी इंदिरा के पिता उनके राजनीतिक कैरियर को सपोर्ट करने की बजाय पार्टी के दूसरे नेताओं को आगे बढ़ते दिखते हैं एक हिस्सा फिरोज गांधी के साथ इंदिरा गांधी के रिश्ते पर फोकस करता है यहां फिरोज का किरदार ये कहता मिलता है कि इंदिरा ने अपने पिता से बदला लेने के लिए उनसे शादी की इन दोनों ही चीजों को फिल्म बिना किसी डिटेल इस तरह बुनती है कि इंदिरा बस इन पुरुषों के प्रति रिएक्शन के रूप में पोलिटिकल कैरियर बुनती नजर आती है ना कि अपने किसी महत्वाकांक्षा के लिए।
किस बात की इमरजेंसी।
इमरजेंसी लगभग ढाई घंटे लंबी फिल्म है मगर इसमें इतना कुछ ठुसे जाने की कोशिश है की फिल्म किसी भी हिस्से से आपको इसके एक लीडिंग किरदार से कनेक्ट ही नहीं होने देती हर 5 से 7 मिनट बाद फिल्म किसी नए किस्से इंदिरा गांधी की जीवन के नए हिस्से पर फोकस करने लगती है और किसी तरह उनका पूरा जीवन समेट देने की जल्दी में लगती है।
फिल्म कर रही है बोर।
क्योंकि कंगना की एक्टिव में जो कमी है सो है ही मगर फिल्म कहीं भी आपको कनेक्ट होने नहीं देगी आपको हर जगह फिल्म बोरियत फील कराएंगी अगर आप कुछ अच्छा देखना चाहते हैं तो आप कोई और सी फिल्म देख सकते हैं लेकिन इमरजेंसी आपको नहीं देखनी चाहिए क्योंकि इस फिल्म में कहानी का कोई अता-पता नहीं है और फिल्म की एक्टिंग जो है वो कुछ खास नजर नहीं आई।